मैं
- Radhika Bansal
- Apr 29, 2021
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मैं, एक उलझा हुआ एहसास हूँ किसी धागे का,
जो बना देता है उन्मुक्त खिलोने को कठपुतली।
मैं,
एक चीखती आवाज़ हूँ, व्योम की,
जो अनसुनी हो निगल ली जाती है उसी व्योम में।
मैं,
स्वछंद उड़ान हूँ, झुंड में उड़ते पक्षी की,
जो पिंजरे में रहता है अकेलेपन के डर से
मैं,
बोसा हूँ, तुम्हारे गाल पर ठहरा ,शांत हवा का,
जैसे होती है मासूमियत किसी बच्चे के झूठ में।
मैं,
दुविधा हूँ, एक कवि की,
जिसे चाहिए एकांत या श्रृंगार प्रेयसी का।
मैं,
कम्पन हूँ, हर सुबह बरक पर मचलती ओस की,
जो खुद को नियंत्रित करती है अपने अस्तित्व के लिए।
मैं,
सिसकी हूँ , हर मूक अश्रुधार की,
जो तकिये में दफनाए रखती है हर काला राज़।
मैं,
अनंत इंतेज़ार हूँ, चलती हुई भीड़ का
जो ढूंढती है मंज़िल अनजान राहों पर।
मैं,
पशेमानी हूँ, तेज़ धङदकती साँसों की
जो बयान कर देती है हाल किसी शख्स का ।
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